काले धागे में छिपी ब्राह्मणवादी समाज की काली हकीकत

कुछ समय पहले तक मेरे दाहिने पैर में एक काला धागा बंधा हुआ था। जब से होश संभाला था, धागा बदलता जरूर रहा पर हटा कभी नहीं। कोई अगर पूछता तो मैं बड़ी सहजता से कह देती कि मैं इसे पहनती हूँ क्योंकि ये मेरे परिवार से जुड़ी एक तरह की पहचान है और इसे मेरे परिवार के सभी लोग पहनते हैं। दूसरी बात मेट्रो सिटीज़ में ये एक तरह का फैशन भी है, शॉर्ट्स या केप्री पर अच्छा लगता है।
बचपन से मैं यह काला धागा पहनते आ रही थी जब कभी पूछा माँ से तो उन्होंने हमेशा यही कहा कि बेटा हम लोग तो शुरू से ही पहन रहें हैं, काला धागा अच्छा होता है पहनना। यह सच है कि महाराष्ट्र में मैंने लगभग सभी लोगों को जो कि मेरी कम्युनिटी महार जाति के थे काले धागे के हाथ,पैर, क़मर गले, बाँह या उंगलियों में काला धागा बंधा पाया(कुछ अपवाद छोड़े जा सकतें हैं)। मैं खुद भी इसी परिपाटी का पालन कर रही थी, फिर अब तो काला धागा पहना जाने का मेरे पास वाज़िब कारण था ख़ुद को फेशेनेबल बताने का।
कुछ समय पहले मेरे 2-3 दोस्तों ने मेरे पैर में बँधे धागे के बारे में पूछा तो मैंने ठीक वही रटा-रटाया सा जवाब दे दिया। तर्क की किसी कसौटी पर 2 मिनिट भी ना ठहर पाए मेरे जवाब ने; मुझे बाध्य किया कि इसे पहनने के कारण और प्रचलन के बारे में गंभीरता से जानना-सोचना चाहिए। उस दिन लौट कर मैंने अपने पैर से उस धागे को निकाल दिया, यह सोच कर कि पहले इसे पहने जाने के पीछे के कारण समझूँगी। खैर इतनी लंबी कहानी इसलिए कि यह कारण मेरे अलावा बाकी लोगों को भी जानना चाहिए, हो सकता है उनके पास भी मेरी तरह इस संदर्भ में अब तक कोई लॉजिक ना हों।
“दरअसल मराठा राज्य में पेशवाओं के शासन में अछूत के लिए यह आवश्यक था कि वह अपनी कलाई, गर्दन या पैर में निशानी के तौर पर एक काला धागा बाँधे, जिससे कि अछूत अलग से पहचाना जाए और सवर्ण हिंदू गलती से उससे छूकर अपवित्र हो जाने से बच जाए। यह नियम ठीक उसी तरह पालन किया जाना ज़रूरी था जैसे अछूतों के लिए कमर में झाड़ू बांधना, थूकने के लिए मिट्टी का बर्तन गर्दन में लटकाना ज़रूरी था। 4 जनवरी 1928 के Time’s of india की एक रिपोर्ट में अछूतों पर अत्याचार के ज़िक्र की रिपोर्ट में यह बात भी शामिल थी।” महाराष्ट्र ही नहीं कमोबेश पूरे भारत में भी अछूतों के लिए इस नियम की अनिवार्यता प्रचलन में थी। मुझे मेरी इस बात का जवाब ‘जाति प्रथा के उन्मूलन में बाबासाहेब ने दिया है।
आगे चलकर संस्कृतिकरण की प्रक्रिया और सामाजिक परिवर्तनों ने इस काले धागे को पहनने के मायने बदल दिए। अस्पृश्यता उन्मूलन और एस सी-एस टी एक्ट के तहत बने कानूनों ने अछूतों के काले धागे पहने जाने कि अनिवार्यता को थोड़ा शिथिल कर किया। पर बाज़ार, फिल्मों और फैशन पंडितों ने यहाँ की संस्कृति और प्रचलन को नया रूप देकर इसे व्यवहार में बनाए रखा। ठीक वैसे ही जैसे अधिकतर लोगों को काला धागा पहने देखा जा सकता है। जैसे आदिवासियों के पारंपरिक गहनों को जंक ज्वैलरी के रूप में फैशन सिंबल बनाकर मेट्रो सिटीज़ में लड़कियां धड़ल्ले से पहन रही हैं। इनमें सवर्ण-दलित सभी शामिल हैं।
दूसरी तरफ़ अछूत लोग अपनी ऐतिहासिक स्थिति की वज़ह से उसे भय और संशय में छोड़ नहीं पाए। साथ ही ब्रह्मानिकल सिस्टम ने मस्तिष्क के स्तर पर जो फ़ांस बनाए रखा उसकी वजह से ये बुरी नज़र से बचाने, काले जादू या कर्मकांड टाइप अंधविश्वास से जोड़ कर प्रचलन में बनाए रखे गए । दलितों की आगे की पीढ़ियों ने भी इसे अपनाए रखा, जैसे कि कुछ महीनों पहले तक मैंने रखा था। काले रंग को जिस तरह बुरा और नकारात्मक बनाया गया उसके साथ बहुजनों को दमित करने में ब्राह्मणवाद को फ़ायदा होना ही था। बहुत सारे दलित लोग शायद मेरी ही तरह यह बात ना जानते हों कि यह कुछ और नहीं हम अपनी जातिय पहचान को धारण कर रहें हैं।
इस रूप में, मैं सवर्ण और दलित के काले धागे पहने जाने के मायनों को बिल्कुल अलग-अलग और एकदम साफ़ समझ पा रही हूँ। काला धागा होगा किसी सवर्ण के लिए फैशन, मेरे लिए वो अब उस अमानवीय इतिहास का हिस्सा है जो मेरे पूर्वजों ने भुगता है। वैसे आपके सोचने के लिए एक सवाल छोड़ रही हूँ- क्यों नहीं जनेऊ का धागा या पूजा में यूज़ होने वाला लाल-पीला पचरंगी धागा पैर में पहनने का फैशन सिंबल बना?
(ये लेखिका के निजी विचार हैं)
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