सपा बसपा गठबंधन: मायावती की ‘चुप्पी’ ही उन्हें बड़े छवि का लीडर बनाती है

2019 के लोकसभा चुनाव नजदीक ही हैं और बसपा प्रमुख मायावती ने चुप्पी साध रखी है। बीएसपी की राजनीति किस करवट लेने जा रही है, उसका इशारा तक नहीं देना चाहती। भाजपा के खिलाफ अलग अलग राजनीतिक कुनबे का निर्माण हो रहा है, और भाजपा का एकजुट विरोध करने के लिए मेल मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया है।
हर गुट दलित वोटों को अपने खाते में करने के लिए मायावती से बड़ी उम्मीद रख रहा है लेकिन मायावती ने चुप्पी बनाये रखी हुई है। जिसके कारण दलित वोट पाने की उम्मीद लगाए पार्टियां मझधार में अटकी हुई है।
सबसे अधिक गौर करने वाली बात यह है की उनकी चुप्पी ही उन्हें बड़ा बना रही है। इतना बड़ा कि फ़िलहाल लोकसभा की एक सीट न होते हुए भी उन्हें 2019 में प्रधानमंत्री का संभावित उम्मीदवार तक मान लिया गया है।
पिछले दिनों तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख केसीआर राज्य पर फतह हासिल करने के बाद राजनीतिक प्लान के तहत तेलंगाना से बाहर निकले। एंटी बीजेपी और एंटी कांग्रेस फेडरल फ्रंट की अपनी कल्पना को साकार के लिए ओडिशा के मुख़्यमंत्री नवीन पटनायक से बात करी।
उसके बाद पश्चिम बंगाल की मुख़्यमंत्री ममता बनर्जी से मिले। फिर इसके बाद वो तीसरे पड़ाव में दिल्ली आकर समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव और बीएसपी प्रमुख मायावती से मुलाकात करने का प्लान था।
अखिलेश ने तो कह दिया कि वो लखनऊ में एक कार्यक्रम में व्यस्त होने के कारण वह केसीआर से मुलाकात नहीं कर पाए लेकिन वो जनवरी में उनसे जरूर मुलाकात करेंगे। अखिलेश ने तो अपनी मजबूरी बता दी लेकिन मायावती दिल्ली में होते हुए भी न ही केसीआर से मुलाकात की न ही किसी तरह का बयान दिया।
केसीआर के पोलिटिकल ऑफर पर हामी या इंकार की बात छोड़ दीजिए अपने रुझान का एक संकेत तक मायावती ने नहीं दिया, मायावती चुप रही, उनकी चुप्पी कयासों की कमान पर चढ़कर राजनीति के आसमान में उनके बुलंद होते सितारे की संभावना दिखा रही है। यह सवाल और बड़ा बन गया है- आखिर किधर जाएंगी मायावती?
मायावती अपने राजनीतिक रुझान का इशारा कर दें तो शायद वो बात ने रहे। परन्तु जिस प्रकार उन्होनें अपने भविष्य के पॉलिटिकल मूव पर सस्पेंस बना रखा है, ऐसा करना 2019 के लिए उनकी बड़ी राजनीतिक भूमिका का निर्माण करता है।

(Image Credits: theweek.in)
बसपा के साथ किसी भी दूसरी पार्टी के संभावित गठजोड़ पर मायावती एक ही बात कहती आई है। बिना सम्मानजनक सीटों के किसी भी पार्टी के सतह बीएससपी गठजोड़ नहीं करने वाली है। इसके आगे के सवाल को वो टाल देती हैं। सवाल तो यह है कि सम्मानजनक सीटें कितनी हों? वो भी तब जब लोकसभा में उनकी एक भी सीट नहीं है।
क्यों नहीं खोल रहीं मायावती अपने पत्ते
भाजपा की चुनावी जीत से बुरी तरह त्रस्त पार्टियां मायावती का साथ चाहती हैं। मायावती खुद जानती हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा से मिली करारी हार की भरपाई अकेले मुमकिन नहीं है। लेकिन इस आशंका के कारण कहीं गठजोड़ का ज्यादा लाभ साझीदार पार्टी को न मिल जाए वो फूंक फूंककर कदम रख रही हैं।
ऐसा देखा गया है कि बसपा के साथ गठबंधन का लाभ बीएसपी से ज्यादा उसकी साझीदार पार्टियां उठा ले जाती हैं। इसी कारण वह कांग्रेस के साथ गठबंधन को उत्सुक नहीं दिखतीं।
